नई दिल्ली: बेजुबानों के हक में आवाज उठाने और उनकी रक्षा के लिए यूं तो कई वैश्विक संगठन काम कर रहे हैं। लेकिन कड़वी सच्चाई यही है कि जानवर शोध और दवाओं के ट्रायल का हिस्सा मात्र रह गए हैं। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकी 1974 में गैर लाभकारी अमेरिकी संस्था न्यूयॉर्क ब्लड सेंटर (एनवाईबीसी) ने लाइबेरिया के पश्चिमी तट पर एक प्रयोगात्मक प्रयोगशाला की शुरुआत की।

न्यूज संस्था डीडबल्यू की रिपोर्ट के मुताबिक, बंदरो का एक समूह अफ्रीका के लाइबेरिया में है। बायोमेडिकल रिसर्च संस्थान के साथ मिल कर जंगली चिम्पांजियों को पकड़ा गया। फिर उन पर शोध और दवाओं के ट्रायल किए गए।
इन चिम्पांजियों को मोनरोविया के बाहर विलाब टू शोध केंद्र में इस तरह के पिंजरों में रखा गया। शोधकर्ताओं ने इन्हें हेपेटाइटिस बी और रिवर ब्लाइंडनेस जैसी बीमारियों से संक्रमित किया ताकि अलग अलग इलाजों की प्रभावकारिता का अध्ययन किया जा सके।

द्वीपों पर खाने और पीने का खासा अभाव है। जिसकी वजह से पशु अधिकार कार्यकर्ता नियमित रूप से यहां नाव से आते हैं और चिम्पांजियों को खाना खिलाते हैं।
अपना वादा भूला न्यूयॉर्क ब्लड सेंटर
इन चिम्पांजियों को प्रयोग का शिकार बनाने वाली शोध संस्था एनवाईबीसी ने जिंदगी भर इनकी देखभाल का खर्च उठाने का वादा किया था, लेकिन उसने 2015 में इसके लिए पैसे में कटौती कर दी। बाद में आलोचना हुई तो संस्था ने 2017 में 60 लाख डॉलर अतिरिक्त दिए। लेकिन ह्यूमन सोसाइटी के मुताबिक ये पर्याप्त नहीं था।

बेबी चिम्पांजी भी कैद
इन द्वीपों पर करीब 65 चिम्पांजी रहते हैं। जिनमें बच्चे भी शामिल हैं। जब भी कोई द्वीप पर पहुंचता है तो ये चिम्पाजी आक्रामक हो जाते हैं। किसी भी मूवमेंट पर ये कड़ी नजर रखते हैं। अब इन्हें कहीं और ले जाना भी जोखिम से भरा होगा। क्योंकी शोध के कारण ये अभी भी कई इनमें संक्रमण मौजूद है।
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