कुंभ देश की वास्तविक तस्वीर
अगर भारत को सही मयने में देखना और समझना हैं तो कुंभ से सुरम्य और सरल कोई दूसरा स्थान नहीं हो सकता । यहां गंगा के झेत्र बसने वाले इस अस्थाई ग्रामीण शहर में जो लोग बसने आते हैं उनमें पहाड़ों में रहने वाले योगियों गुफाओं से संत और शमशान से अघोरी निकलकर ग्रहस्थों के साथ रहते हैं। इसके अलावा पता नहीं कितने पंथ समुदाय के लोग यहां आते है। इनमें से कुछ साधना कुछ कठोर तप तो कोई अपनी शिष्य परंपरा को भी आगे बढ़ाने और गुरूमंत्र आदि देने के काम से कल्पवास में आते हैं।
संतों के बीच ग्रहस्थों का जमावड़ा
भारत में अधिकतर संत परंपराओं में ऐसी प्रथा देखी गयी है कि जो एक बार उस परम ब्रंह्म को खोजने के लिए घर से निकल पड़ता है वह फिर कभी भी पलटकर घर समाज की तरफ नहीं देखता। इस स्थिति में यह कुंभ गृहस्थों और संतों को एक साथ लाता है जहां संसारियों को उस परम सत्ता के बारे में दिव्य ज्ञान का पान करने का मौका मिलता है। इसी दौरान कई गृहस्थ भी संतों के संपर्क में आकर उनके शिष्य बनते हैं और अपनी आध्यात्मिक यात्रा की शुरूवाक करते हैं ।
धर्म संसद की बढ़ती धमक
जैसे जैसे देश धर्म की भारतीय परिभाषा को समझ रहा है वैसे वैसै स्थिति अब बदल रही है। कम से कम कुंभ को देखकर भी अगर कोई भारत के धर्म की परिभाषा को न समझे तो उसकी समझ पर शक किया जा सकता है। कुंभ का साफ संदेश है कि धर्म परसत्ता तक पहुंचने और अपने कर्तव्य का सही निर्वहन ही धर्म है क्योंकि कुंभ धरती में एकलौता एक ऐसा धार्मिक उत्सव है जहां सारे भारतीय संप्रदाय के लोग एक साथ इकट्ठा होते हैं। धर्म की समझ बढी इसलिए अब सामूहिक पहिचान यानी भारतीयता की रक्षा भी धर्म संसद विषय बनता जा रहा है। जिसमे राजनीति से लेकर अर्थव्यवस्था और समाजिक मुद्दों पर भी चर्चा की जाती है।
कुंभ का नदियों को लेकर क्या संदेश
उस दौर में जब शहर नदियों को निगल रहें हैं। और पानी पीने क्या नहाने लायक भी नही बचा उस स्थिति में नदी पूजा लोगों में नदियों के प्रति सम्मान के भाव से भरने का एक बेहतरीन माध्यम है। कुंभ नमामि गंगे में बेहद सहयोगी है इस पर कोई दोराय नही।
राजनीति के केंद्र में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से मजबूत हुआ कुंभ
ये वो दौर है जिस समय राजनीति के केंद्र में संस्कृति आ खड़ी हुई है उस स्थिति में राजनीति के द्वारा धर्म को दरकिनार करना जरा मुस्किल होगी । खासकर तब जब सत्ताधारी भाजपा अपने राजनीति के केंद्र में संस्कृति को ही रखती हो। इसलिए आज कुंभ केवल संस्कृति का केंद्र नहीं बल्कि यह सत्ता के प्रदर्शन का संकेत भी है। कम से कम प्रयागराज के कुंभ की बात की जाये तो उत्तर प्रदेश सरकार का राजनीतिक हिसाब किताब तो कुंभ की भव्यता को देखकर लगाया ही जाता है।