“तीन तलाक” राजनीतिक या सामाजिक मुद्दा या फिर धार्मिक आजादी की हत्या?

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भाजपा तीन तलाक के मुद्दे को अब पूरी तरह से अपने एजेंडे में शामिल कर चुकी है। वो भारत की मुस्लिम महिलाओं को तलाक-ए-विद्दत की आफत से पूरी तरह आजाद करने के मूड में है । पर शाहबानों केस को संविधान संसोधन लाकर पलटने वाला विपक्ष विरोध में अड़ा है । मजेदार बात ये है कि ये वहीं लोग हैं जो अपने आप के लिबरल होने का दावा आजादी के बाद से लगातार करते आये हैं। पर इतिहास इनका ये रहा है। कि अगर वोट बैंक इनके सामने हो तो लोगों की लिबर्टी के ताक पर रखते इनको समय नहीं लगता । इतिहास एमरजंसी से लेकर शाहबानों केश तक का गवाह है। पर अब बीजेपी भी आरपार के मूड में दिख रही है । और इसी का परिणाम है कि मुस्लिम महिला विवाह संरक्षण अधिनियम को लोकसभा में पास कर दिया गया और ये जानते हुए भी कि हंगामा और बाईकाट कर रहा विपक्ष इस अधिनियम को संमर्थन नहीं देगा इस बिल को राज्यसभा में रखने जा रही है।

भाजपा की राज्यसभा में क्या स्थिति

राज्यसभा में अगर वोटों के गणित की बात की जाये तो बीजेपी के 73 के साथ पूरे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पास 86 सीटें हैं जबकि अगर विपक्ष की बात करें तो कांग्रेस के पास 50 समाजवादी पार्टी के पास 13 टीएमसी के पास 13 और सीपीएम के पास 5 के आलावा पूरे विपक्ष के पास 97 सीटें हैं जबकि राज्यसभा में जो दल किसी तरफ नहीं हैं टीआरएस के पास 6 और बीजेड़ी के पास 9 और एआईएडीएमके के पास 13 सांसद हैं इन सारी स्थितियों पर सवाल अब सरकार के पास यही है कि लोकसभा से वॉकआउट करने के बाद राज्यसभा में एआईएडीएमके का क्या रूख रहता है!

सबरीमाला बनाम तीन तलाक

विरोधियों का एक दूसरा तर्क यह है कि भाजपा हिंदुओं की महिलाओं को खिलाफ मान्यताओं को तो संरक्षण देती है पर मुलमानों की भावनाओं से खिलवाड़ करती है। विरोधी ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि सबरीमाला में हिंदू महिलाओं के प्रवेश ना होने देने के लिए भाजपा केरल में विरोध कर रही है। अगर विरोधियों के इस तर्क की तह तक जाया जाये तो पता चलता है कि ये तर्क बिल्कुल खोखला सा मालूम पड़ता है । क्योंकि एक ऐसे उदाहरण से आप एक कुरीति की तुलना नहीं कर सकते जिससे पूरा समाज पीड़ित हो। क्योंकि हिंदुओं ने सती प्रथा को त्याग दिया और इसी करह की और बहुत सारी कुप्रथाओं को तिलांजलि दे दी । अगर सबरीमाला की बात करें तो वो एक विशेष प्रकार का मंदिर हैं जिसकी अपनी मान्यताएं हैं । और ऐसे विशेष मंदिर केवल महिलाओं के प्रवेश पर ही पावंदी लगाते हैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं क्योंकि पुष्कर के ब्रम्हा मंदिर के गर्भग्रह में शादीशुदा पुरूषों का प्रवेश वर्जित है। और अजीब बात ये है कि पूरे विश्व में ये मंदिर एक अकेला ही है। इसके बावजूद पुरूष अंदर नहीं जा सकते। इसके अलावा और कई सारे ऐसे मंदिर है जहां पुरुषों का प्रवेश निषेध है। इससे ये प्रमाणित होता है कि ये मंदिर का विशेषता है न कि महिलाओं या पुरूषों के साथ भेदभाव। पर अगर बात की जाये तीन तलाक की तो इससे पूरे मुस्लिम समाज की औरते पीड़ित हैं न कि कोई पुरूष ।

तीन तलाक धार्मिक आजादी और व्यक्तिगत आजादी के बीच टकराव

भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 के बीच धार्मिक आजादी की बात की गयी है। जिसमें साफ-साफ यह कहा गया है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और न ही राज्य किसी धर्म को समर्थन देगा। पर नागरिकों को अपने अपने धर्मों के रीति रिवाज को मानने व उनके निर्वहन का अधिकार है।

अब अगर बात की जाये तीन तलाक के विरोधियों के तर्क की तो उनका कहना है कि किसी धर्म की मन्यताओं का विरोध संविधान के मौलिक उद्देश्य में ही कुठाराघात है। तो इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि जब संविधान बना था तो उसमें किसी भी नियम संस्था धर्म या समुदाय की मान्यताओं से ऊपर व्यक्तिगत स्वतंत्रता को रखा गया था और इसीलिए अगर कोई भी धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नुकशान पहुचाता है तो ये स्थिति विल्कुल भी संविधान सम्मत नहीं होगी। और इसे सीधे सीधे संविधान की व्यक्तिगत आजादी का उलंघन माना जायेगा ।

2014 के बाद अधिकारों को लेकर बढ़ी जागरूकता

दो हजार चौदह के बाद देश की सोई हुई राजनीति उठ खड़ी हुई वो पार्टी भी सक्रिय हुई जो केवल आर्थिक हेतु से बनी थी। साथ ही अस्तित्व बचाने के लिए वो संगठन भी मानो जाग से गये जो कभी भी मीडिया में विरोध करते पहले कभी भी नहीं दिखे। पता नहीं कैसे और क्यों पर ये बात सही है कि 2014 के बाद देश के आम नागरिकों के बीच राजनीति और सामाजिक अधिकारों को लेकर जागरूकता बढ़ी है। हो सकता है ये राजनीतिक सक्रियता का परिणाम हो या फिर ये भी हो सकता है कि संचार क्रांति की बानगी हो। कुछ भी हो समाज में अगर एक बहुत बड़े धड़े के पास कुछ बंदिशों के बाद सब कुछ करने की आजादी हो और वहीं आपके पास कुछ करने की छूट के साथ अगर सभी चीजों पर बंदिशें हो तो तीन तलाक का मुद्दा भी सामने आयेगा। पर शाहबानो केस मे दांव खेलने वाले दलों को डेमोक्रेटिक लिबर्टी की ये बात समझ में आते तो आये कैसे ? अब समय आ गया है कि राजनीतिक पार्टी ये समझें की कोई भी समाज सुधार का काम केवल राजनीतिक वोट बैंक के आसरे नहीं हो सकते उस पर एक बहुत बड़े जन समर्थन की आवश्यकता होती है ।


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